अब स्वतंत्र पत्रकारिता की रक्षा कौन करेगा?
विशेष,1 मई। आंचलिक पत्रकारों की यह संघर्ष भावना यकीनन सम्मान की हकदार है। अफसोस है कि मुख्यधारा की पत्रकारिता में इस महत्वपूर्ण मुद्दे को व्यापक समर्थन नहीं मिला।
उत्तर प्रदेश में एक के बाद एक लगातार परीक्षाओं के प्रश्नपत्र लीक हुए। जब पत्रकारों ने यह खबर छापी तो पुलिस ने उनके खिलाफ सख्त धाराएं लगाकर जेल में डाल दिया। इसके विरोध में पत्रकार सड़कों पर आते हैं। जब अदालत ने पुलिस की धाराओं का परीक्षण किया तो पाया कि यह पत्रकारों का उत्पीड़न है और उन धाराओं की जरूरत ही नहीं है। पत्रकारों को इसके बाद छोड़ दिया गया।
इससे पहले पुलिस और प्रशासन पत्रकारों से प्रश्नपत्र लीक होने का स्त्रोत जानने के लिए दबाव डालता रहा। अब पत्रकार जमानत पर बाहर हैं। आजमगढ़ पत्रकारों के विरोध का केंद्र बिंदु बना रहा। वहां के डॉक्टर अरविन्द सिंह ने इसका नेतृत्व किया।
आंचलिक पत्रकारों की यह संघर्ष भावना यकीनन सम्मान की हकदार है। अफसोस है कि मुख्यधारा की पत्रकारिता में इस महत्वपूर्ण मुद्दे को व्यापक समर्थन नहीं मिला। पत्रकारों में अपने पेशे को लेकर इतनी संवेदनहीनता निश्चित ही शर्मनाक है।
ऐसी ही एक घटना कानपुर से मिली है, जहां पुलिस ने एक पत्रकार को निर्वस्त्र करके उसके गले में प्रेसकार्ड डालकर उसे सार्वजनिक रूप से घुमाया। इससे पहले मध्य प्रदेश के सीधी में भी पुलिस ने थाने में पत्रकारों के कपड़े उतरवाकर उनकी तस्वीरें सार्वजनिक कीं। भारतीय हिंदी पत्रकारिता का यह दौर क्रूर कथाएं लिख रहा है और इस पवित्र कार्य से जुड़े अधिकतर लोग चुप्पी साधे हुए हैं। समाज के अन्य बौद्धिक तबके भी समर्थन में खुलकर सामने नहीं आ रहे हैं। स्थिति यह है कि पड़ोसी के घर हमला होता है तो हम चुप रहते हैं और जब हम पर आक्रमण होता है तो पड़ोसी चुप्पी साधे रहता है।
उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की घटनाएं पत्रकारों के लिए सामूहिक संघर्ष का संदेश देती हैं। यही नहीं, हुक़ूमतों के लिए भी इनमें एक चेतावनी छिपी है। अगर वे इस तरह दुर्व्यवहार करती रहीं तो एक दिन वह भी आएगा, जब उनका सहयोग करने में अवाम भी आगे नहीं आएगी। सच सर चढ़कर बोलता है और झूठ के पांव नहीं होते। दमन का प्रतिरोध करने के लिए तैयार रहिए !